इसे कहते हैं राजा का न्याय, बेटे को भी नहीं बख्शा
अयोध्या के राजा सगर न्यायप्रिय शासक थे। प्रजा के दुख-सुख में वह हमेशा सहभागी रहते थे। एक दिन वह दरबाार में बैठे थे। दरबान ने आकर उन्हें बताया कि अयोध्या के कुछ प्रमुख लोग उनसे भेंट करना चाहते हैं।
महाराजा सगर ने उन्हें दरबार में बुलवा लिया। उन्होंने महाराजा को सिर झुकाकर नमस्कार किया और बैठ गए। महाराजा ने कुशल-क्षेम पूछी तो उनमें से एक रो पड़ा।
महाराजा को समझते देर न लगी कि ये सब किसी दुख से पीड़ित होकर आए हैं। महाराजा ने कहा, 'आप निःसंकोच बताइए कि आपको मेरे राज्य में क्या कष्ट है। महाराज, हमें लाचार होकर यहां आना पड़ा है। एक वृद्ध नागरिक ने कहा, 'महाराज, आप तो प्रजा को पुत्रों की तरह स्नेह और संरक्षण देते हैं।
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किंतु आपके पुत्र राजकुमार असमंजस ने राज्य में हमारा रहना दूभर कर दिया है। वह शाम को सरयू तट पर पहुंचते हैं और अबोध बालकों को नदी की उफनती धार में फेंक देते हैं।
जब डूबते बालक रोते हैं तो राजकुमार जोर से अट्टहास कर अपना मनोरंजन करते हैं।' सुनते ही महाराज का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा।
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उन्होंने कहा, 'आप सभी निश्चिंत होकर अपने-अपने घर लौट जाइए।' महाराजा दरबार से महल में पहुंचे।
उन्होंने राजकुमार असमंजस को अपने पास बुलवाया। वे बोले, 'तुम राजकुमार हो या जल्लाद/' तुम प्रजाजनों के निर्दोष बच्चों को सरयू में फेंक कर मनोरंजन करते हो। मेरे राज्य में ऐसा क्रूर व्यक्ति एक क्षण भी नहीं रह सकता।' राजकुमार भय से कांपने लगे।
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