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Monday, April 2, 2018

'यह सच है कि दुनिया बेहद खतरनाक जगह बन गई है, मगर...'

 'यह सच है कि दुनिया बेहद खतरनाक जगह बन गई है, मगर...'








पुरानी व्यवस्था को इतिहास के कूड़ेदान के हवाले कर दिया गया है, तो नई व्यवस्था हमारी पहुंच से बिल्कुल बाहर दिखती है. उधर दुनिया एक धुंधले, कुछ अस्पष्ट-से और कई मायनों में खतरनाक नए घटनाक्रम की तरफ जैसे-तैसे बढ़ रही है, इधर सच कठघरे में खड़ा है और आजादी बौद्धिकता की बंद गली में फंसकर रह गई है. हमारे वक्त के इस किस्से पर निर्णायक संवाद ही तो इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2018 का कुल जमा मकसद थाः बहस, चर्चा, तर्क-वितर्क और इस पूरी प्रक्रिया से जानना-सीखना जबरदस्त महामंथन चल रहा है. अमेरिका दुनिया की अगुआई की अपनी भूमिका से कदम पीछे खींच रहा है और उसका मनमौजी और हेकड़ीबाज राष्ट्रपति अपने ही देश की बनाई विश्व व्यवस्था को ध्वस्त करने पर तुला है.












अपने देश में वह खुद अपने ही व्हाइट हाउस और सुरक्षा प्रतिष्ठान के साथ जंग में मुब्तिला है. अमेरिका में अफरा-तफरी फैली है. चीन का उभार बेरोकटोक जारी है. अब वह दुनिया की फैक्ट्री भर नहीं रहा, बल्कि विश्व मंच पर बाहुबली और आक्रामक ताकत बन गया है और सुपर पावर बनने की राह पर है. राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन की अगुआई में रूस लगातार शिकार की खोज में घूमता गुर्रा रहा है. अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में उनकी दखलअंदाजी अमेरिका की घरेलू सियासत पर तारी है. विडंबना देखिए, यह उसी राष्ट्रपति की जड़ों को खोखला कर रही है जिसे पुतिन जिताना चाहते थे.









यूरोपीय संघ तार-तार हो रहा है. ब्रेग्जिट और शरणार्थी संकट के बाद यूरोपीय संघ के कई देश एक नए किस्म के राष्ट्रवाद का उभार देख रहे हैं, जिसने हाल के इतिहास में राष्ट्रों के सबसे प्रगतिशील संघ की बुनियादें हिला दी हैं. यह असल में इतिहास के गाल पर एक तमाचा है. पश्चिम एशिया लगातार लपटों से घिरा है. यह मजहबी उग्रवाद और बर्बर लड़ाइयों से जार-जार है जिनका कोई अंत दिखाई नहीं देता. यह दो महाशक्तियों के खूनी खेल का मैदान बना हुआ है. उधर, अफगान जंग जारी है जहां अमेरिकी मौजूदगी का 17वां साल पूरा हो रहा है. यहां वह एक ऐसी जंग लड़ रहा है जिसे न तो वह जीत सकता है और न ही हारना गवारा कर सकता है.
















उधर, एटमी अस्थिरता फिर आ खड़ी हुई है. नेता इस तरह बर्ताव कर रहे हैं जैसे लड़के खिलौनों से खेलते हैं. पर ये खतरनाक खिलौने हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो यहां तक दावा किया है कि उनका एटमी बटन किम जोंग के बटन से कहीं बड़ा है. इधर पड़ोस में पाकिस्तान हमे एटमी हौवा दिखा रहा है और नियंत्रण रेखा लगातार गोलाबारी के साथ अनियंत्रित रेखा में तब्दील हो गई है. सीमा-पार दहशतगर्दी जस की तस है. मानो खुद विनाश पर आमादा मानवता जलवायु परिवर्तन की चेतावनियों को एक बार फिर नजरअंदाज कर रही है. ऐसा लग रहा है कि यह दुनिया पृथ्वी को नहीं बचा सकती.









यह सच है कि दुनिया बेहद खतरनाक जगह बन गई है. मगर सब कुछ अंधकार और मायूसी से घिरा नहीं है. हमारे पास कुछ महान फतह और कामयाबियां भी हैं. वैश्विक अर्थव्यवस्था सात साल की गिरावट के बाद 3.5 फीसदी की रफ्तार से बढ़ चली है.
टेक्नोलॉजी का सुपरफास्ट सफर जारी है और अब यह चौथी औद्योगिक क्रांति को अंजाम दे रही है. यह हमारी दुनिया को बेहतर जगह बना रही है, इनसानों को ज्यादा सेहतमंद, ज्यादा उत्पादक और उम्मीद है कि ज्यादा खुश भी बना रही है. मैं मानता हूं कि इस महामंथन ने पांच विरोधाभास भी हमारे सामने उछाले हैं जिनसे आगामी वर्षों में हमें निबटना होगा. हम उनसे कैसे निबटते हैं, इसी से 21वीं सदी की इबारत लिखी जाएगी.









पहला सबसे खतरनाक विरोधाभास है आपस में बेइंतिहा जुड़ी हुई भूमंडलीकृत दुनिया में राष्ट्रवाद की वापसी. संरक्षणवादी ताकतें सिर उठा रही हैं. एक के बाद एक देश व्यापार, लोगों की आवाजाही, यहां तक कि विचारों की राह में रोड़े अटका रहे हैं. हमें एक करने वाली ताकतों के बनिस्बत अलग करने वाली ताकतें ज्यादा मजबूत हो रही हैं. हमारे जमाने के एक अद्भुत विचारक युवल नोआ हरारी ने 21वीं सदी के राष्ट्रवाद पर अपने विचार हमारे सामने रखे. दूसरा विरोधाभास लोकतंत्र पर मंडराते खतरे हैं. लोकतंत्र आजादियों का सुंदर पालना है. मगर इन आजादियों को कट्टरतावाद, बहुसंख्यकवाद और व्यापक असहिष्णुता के जरिए कमजोर किया जा रहा है. यह अनुदार और एक किस्म के लुंपेन लोकतंत्रों का उभार है.







खुद हमारे अपने मुल्क में क्या हो रहा है! बिना देखे ही फिल्मों पर पाबंदियां लगाई जा रही है. घर में गलत किस्म का गोश्त रखने या पशुओं को लाने-ले जाने पर लोगों की जान ली जा रही है. राष्ट्रीय धरोहरों को नेस्त-नाबूद करने की गरज से इतिहास दोबारा लिखा जा रहा है. सड़कों के नाम बदले जा रहे हैं क्योंकि वे दुष्ट साम्राज्यों को महिमामंडित करती हैं और प्रतिमाएं गिराई जा रही हैं क्योंकि वे दूसरी विचारधारा के साथ वाबस्ता हैं. तमाम किस्म के धड़े मीडिया को लगातार हिंसा की धमकियां दे रहे हैं. हम ''आहतों का गणराज्य" बन गए हैं और बस इंतजार करते हैं कि कब कौन हमें लज्जित और अपमानित करेगा और लोगों का ध्यान खींचने के लिए इसे विवाद का मुद्दा बनाएगा. खामोशी और निष्क्रियता से कट्टरता को और ताकत मिलती है. विवेकवान बहस की जगह संसद तक में शोर-शराबे और कर्कशता ने ले ली है. आप आगे के पन्नों पर पढ़ेंगे कि इस सबके बारे में सोनिया गांधी ने क्या कहा.















इंसाफ के सबसे ऊंचे मंदिर सुप्रीम कोर्ट में जज खुलेआम एक-दूसरे से झगड़ रहे हैं. सियासतदां अफसरशाहों और कानून लागू करने वाले अफसरों के साथ मारपीट और उन पर हमले कर रहे हैं. और लगता है, अफसरशाही का वजूद लोगों की नहीं, खुद की सेवा के लिए है. जब यह सब हो रहा हो तो आप जान जाते हैं कि लोकतंत्र खतरे में है. और अगर मैं कहता हूं कि लोकतंत्र खतरे में है, तब तय जानिए कि राष्ट्र खतरे में है. क्योंकि हिंदुस्तान को बतौर लोकतंत्र ही चलाया जा सकता है. तीसरा विरोधाभास मैक्सिम.लीडर का अभ्युदय है. किसी को भी लगेगा कि एक मजबूत नेता की छत्रछाया में समाज आपस में ज्यादा जुड़ा होगा और हम सब कहीं ज्यादा अमन-चैन की जिंदगी जी पाएंगे. हो उलटा रहा है. समाज पहले की बनिस्बत कहीं ज्यादा रंजिशों और अंतर्कलह से तार-तार है. अमेरिका को ही लें. आज यह एक ऐसा मुल्क है जो विचारधाराओं के आधार पर बंटा हुआ है और कोई बीच का रास्ता दिखाई नहीं देता. नतीजा हर वक्त खींचतान और लगातार टकराव है.








हिलेरी क्लिंटन ने इस सबको अपने नजरिए से देखा-जाना है. उनसे बेहतर शख्स दूसरा नहीं हो सकता था क्योंकि उन्होंने पिछले चार दशकों से अमेरिकी सियासत को करीब से और निजी तौर पर देखा और उसमें हिस्सा लिया है. हिंदुस्तान भी कहीं ज्यादा बंटा हुआ समाज बन गया है. इसने पहचान की सियासत का उभार देखा है, वह जाति की पहचान हो, धर्म की या क्षेत्र की. हिंदुस्तान बहुलता का हिमायती समाज रहा है और इसी की जड़ें खोदी जा रही हैं. अल्पसंख्यक डर और खतरा महसूस कर रहे हैं. अब तो हिंदुओं से भी पूछा जा रहा है कि वे किस किस्म के हिंदू हैं. जल्द ही बाबरी मस्जिद का फैसला आएगा, तब हिंदुस्तान की लोकतांत्रिक साख की अग्निपरीक्षा होगी. चौथा विरोधाभास है बढ़ती खुशहाली के बावजूद भीषण खाई. वैश्वीकरण और नवाचार के दम पर आई आर्थिक वृद्धि की बदौलत जहां देश ज्यादा समृद्ध, खुशहाल हुए हैं, वहीं अमीर ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब.









गैर-बराबरी दुनिया भर में बढ़ी है और हिंदुस्तान उन देशों में है जहां यह सबसे ज्यादा है. सबसे ऊपर के 1 फीसदी लोग 58 फीसदी संपदा के मालिक हैं. जो नई संपदाओं का निर्माण हो रहा है, उनमें से भी 70 फीसदी वे हड़प लेते हैं. चैतरफा फैला खेती-किसानी का संकट और व्यापक बेरोजगारी ऐसा टाइम बम है जो टिक् -टिक्  कर रहा है. अलग-थलग पड़े लोग यह देखकर और गुस्से से भर जाएंगे कि अमीर बैंकों को लूटकर भी महफूज हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे बखूबी समझ लिया है. उनकी शुरू की गई कई योजनाओं ने इसी विरोधाभास पर निशाना साधा है. संपदा का निर्माण करने वालों को सजा दिए बगैर वृद्धि के साथ इंसाफ और बराबरी लाना बड़ी चुनौती है. तिस पर भी वह सवाल, जो हिंदुस्तान में अक्सर दोहराया जाता है— ''हम जनसांख्यिकीय आपदा की तरफ बढ़ रहे हैं या हम जनसांख्यिकीय फायदे की फसल काटने जा रहे हैं?—" अब भी मझधार में झूल रहा है. इसके बारे में और बैंकों के बारे में हमें इस कॉन्क्लेव में भी बहुत कुछ सुनने को मिला. पांचवां और आखिरी विरोधाभास वैश्विक डिजिटल दिग्गजों का उभार हैः ये वे कंपनियां हैं जिनके पास ताकत बहुत ज्यादा है पर कोई जवाबदेही नहीं. उन्होंने हमारी जिंदगी को बेहतर बनाया है पर इसकी कीमत भी वसूली है. निजता बीते जमाने की चीज हो चुकी है. वे हमारे बारे में सब कुछ जानते हैं और उसका मनमाने तरीके से इस्तेमाल करने के लिए आजाद हैं. उनकी सल्तनतों की कोई सरहद नहीं. वे सूचनाओं, संवादों और मनोरंजन की आवाजाही के नए दरबान हैं. चार बड़ी कंपनियों—गूगल, फेसबुक, अमेजन और एपल—की हैसियत तकरीबन 3 खरब डॉलर के बराबर है. सोशल मीडिया भी दोधारी तलवार है. इसका अच्छाई के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है और बुराई के लिए भी. यह हरेक को अपनी राय जाहिर करने की आजादी देता है पर वह आजादी तब खतरे में पड़ जाती है जब संगठन अपने से नाइत्तेफाकी रखने वाले लोगों को बदनाम करने के लिए ट्रॉल्स की फौज उतार देते हैं. मगर यह और ज्यादा सोशल एक्टिविज्म की भी इजाजत देता है. इसी की बदौलत # मी टू और # टाइम्स अप सरीखे आंदोलन उन लोगों का पर्दाफाश कर सके जो अपनी असल खूंखार शख्सियत को छिपाने के लिए शराफत का लबादा ओढ़े रहते हैं. मगर सचाई लगातार कठघरे में खड़ी है. फेक न्यूज ऐसा वायरस है जो पूरे डिजिटल ईकोसिस्टम में फैल गया है. टेक्नोलॉजी की इन दिग्गज कंपनियों पर नियम-कायदे लागू कर पाना आगे बड़ी चुनौती होगी. मैं मानता हूं, ये विरोधाभास ही वे अहम मुद्दे होंगे जो 21वीं सदी पर छाए रहेंगे. ऐसे ही मुद्दों पर बातचीत इस कॉन्क्लेव यानी विचारों के हमारे सालाना जलसे का निचोड़ थी. यह वह जगह और मौका है जहां हम बहस, चर्चा, तर्क-वितर्क करते और जानते-सीखते हैं. मैं मानता हूं, आखिरी सांस तक जानते-सीखते रहना ही जिंदगी को बखूबी जीना है. आइए, इस कॉन्क्लेव को जानने-सीखने का हिस्सा बनाएं.





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